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यं त्वं रथ॑मिन्द्र मे॒धसा॑तयेऽपा॒का सन्त॑मिषिर प्र॒णय॑सि॒ प्रान॑वद्य॒ नय॑सि। स॒द्यश्चि॒त्तम॒भिष्ट॑ये॒ करो॒ वश॑श्च वा॒जिन॑म्। सास्माक॑मनवद्य तूतुजान वे॒धसा॑मि॒मां वाचं॒ न वे॒धसा॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yaṁ tvaṁ ratham indra medhasātaye pākā santam iṣira praṇayasi prānavadya nayasi | sadyaś cit tam abhiṣṭaye karo vaśaś ca vājinam | sāsmākam anavadya tūtujāna vedhasām imāṁ vācaṁ na vedhasām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यम्। त्वम्। रथ॑म्। इ॒न्द्र॒। मे॒धऽसा॑तये। अ॒पा॒का। सन्त॑म्। इ॒षि॒र॒। प्र॒ऽनय॑सि। प्र। अ॒न॒व॒द्य॒। नय॑सि। स॒द्यः। चि॒त्। तम्। अ॒भिष्ट॑ये। करः॑। वशः॑। च॒। वा॒जिन॑म्। सः। अ॒स्माक॑म्। अ॒न॒व॒द्य॒। तू॒तु॒जा॒न॒। वे॒धसा॑म्। इ॒माम्। वाच॑म्। न। वे॒धसा॑म् ॥ १.१२९.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:129» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले एक सौ उनतीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन क्या करें, उस विषय को कहते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इषिर) इच्छा करनेवाले (इन्द्र) विद्वान् सभापति ! (त्वम्) आप (मेधसातये) पवित्र पदार्थों के अच्छे प्रकार विभाग करने के लिये (यम्) जिस (अपाका) पूर्ण ज्ञानवाले (सन्तम्) विद्यमान (रथम्) विद्वान् को रमण करने योग्य रथ को (प्रणयसि) प्राप्त कराने के समान विद्या को (प्रणयसि) प्राप्त करते हो (च) और हे (अनवद्य) प्रशंसायुक्त (वशः) कामना करते हुए आप (अभिष्टये) चाहे हुए पदार्थ की प्राप्ति के लिये (वाजिनम्) प्रशंसित ज्ञानवान् के (चित्) समान (तम्) उसको (सद्यः) शीघ्र (करः) सिद्ध करें वा हे (तूतुजान) शीघ्र कार्यों के कर्त्ता (अनवद्य) प्रशंसित गुणों से युक्त (सः) सो आप (अस्माकम्) हम (वेधसाम्) धीर बुद्धिवालों के (न) समान (वेधसाम्) बुद्धिमानों की (इमाम्) इस (वाचम्) उत्तम शिक्षायुक्त वाणी को सिद्ध करें अर्थात् उसका उपदेश करें ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन सब मनुष्यों को विद्या और विनय आदि गुणों में प्रवृत्त कराते हैं, वे सब ओर से चाहे हुए पदार्थों की सिद्धि कर सकते हैं ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ।

अन्वय:

हे इषिरेन्द्र त्वं मेधसातये यमपाका सन्तं रथं प्रणयसीव विद्यां प्रणयसि च, हे अनवद्य वशस्त्वमभिष्टये च वाजिनं चित्तं सद्यः करः। हे तूतुजानानवद्य स त्वमस्माकं वेधसान्न वेधसामिमां वाचं करः ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) (त्वम्) (रथम्) रमणीयम् (इन्द्र) विद्वन् सभेश (मेधसातये) मेधानां पवित्राणां संविभागाय (अपाका) अपगतमविद्याजन्यं दुःखं यस्य तम् (सन्तम्) विद्यमानम् (इषिर) इच्छो (प्रणयसि) (प्र) (अनवद्य) प्रशंसित (नयसि) प्रापयसि (सद्यः) (चित्) इव (तम्) (अभिष्टये) इष्टप्राप्तये (करः) कुर्य्याः। अत्र लेट्। (वशः) कामयमानः (च) (वाजिनम्) प्रशस्तज्ञानवन्तम् (सः) (अस्माकम्) (अनवद्य) प्रशंसितगुणयुक्त (तूतुजान) क्षिप्रकारिन् (वेधसाम्) मेधाविनाम् (इमाम्) (वाचम्) सुशिक्षितां वाणीम् (न) इव (वेधसाम्) मेधाविनाम् ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः सर्वान्मनुष्यान् विद्याविनयेषु प्रवर्त्तयन्ति तेऽभीष्टानि साद्धुं शक्नुवन्ति ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान व राजाच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तात सांगितलेल्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान लोक सर्व माणसांना विद्या व विनय इत्यादी गुणात प्रवृत्त करवितात ते सगळीकडून अभीष्ट पदार्थांची सिद्धी करू शकतात. ॥ १ ॥